हवा ज़माने की साक़ी बदल तो सकती है हयात साग़र-ए-रंगीं में ढल तो सकती है बस इक लतीफ़ तबस्सुम बस इक हसीन नज़र मरीज़-ए-दिल की ये हालत सँभल तो सकती है जहाँ से छोड़ रहे हो मुझे अँधेरे में वहीं से राह-ए-मोहब्बत निकल तो सकती है फिर अपने गुंचा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर का क्या होगा नसीम-ए-सुब्ह मिरी सम्त चल तो सकती है तिरी निगाह-ए-करम की क़सम है अब भी मुझे यही यक़ीन कि दुनिया बदल तो सकती है 'सलाम' जाम-ओ-सुबू की ये शाइरी मालूम वगर्ना अपनी तबीअ'त बहल तो सकती है