हवा कभी यूँ भी इठलाती आती थी पायल से संतूर बजाती आती थी ऐसा ख़ुश्क किनारा ये साहिल कब था नदी यहाँ तक भी लहराती आती थी एक सितारा जगमग करता था छत पर किरन ज़मीं तक बदन चुराती आती थी वहशी अपनी धूल उड़ाता जाता था ख़ल्क़-ए-ख़ुदा नेज़े लहराती आती थी खुले हुए गुलज़ार सी कोई ख़ुश-बदनी शहर-ए-सुकूत में लहर उठाती आती थी शहज़ादी फिर शहर-ए-सबा को लौट गई दश्त में जो सौ शमएँ जलाती आती थी यही निदा-ए-कोह जो आती है कल भी बख़्त-बुरीदों को बहलाती आती थी