हवा-ए-शाम ज़रा सा क़याम होगा ना चराग़-ए-जाँ को जलाऊँ कलाम होगा ना बस एक बात ही पूछी बिछड़ने वाले ने कभी कहीं पे मिले तो सलाम होगा ना रुख़-ए-जमाल पे शिकनें ही जब सजी होंगी तो फिर हमारा रवय्या भी ख़ाम होगा ना तिरी बहिश्त में हूर-ओ-क़ुसूर होंगे मगर क़रार-ए-जाँ का भी कुछ इंतिज़ाम होगा ना कभी-कभार ही लेकिन पुकारते हैं तुझे हमारा चाहने वालों में नाम होगा ना अगर मैं आधा-अधूरा ही लौट आऊँ तो निगाह-ए-नाज़ वही एहतिमाम होगा ना बस एक बार मोहब्बत से देखना है इधर बताओ तुम से ये छोटा सा काम होगा ना चराग़ जलते रहें या कि राख हो जाएँ तुम्हारे आतिशीं-रुख़ को दवाम होगा ना