कभी बे-मुद्दआ देना कभी बा-मुद्दआ' देना समझ में कुछ नहीं आता तिरी सरकार का देना कभी मेहराब-ए-दिल को दरख़ुर-ए-काबा बना देना कभी दामान-ए-ग़म को भी मदीने की हवा देना मुबारक उन को अपनी राह में काँटे बिछा देना हमें आता है बस दुश्मन के हक़ में भी दुआ देना जनाब-ए-शैख़ का ये ज़ोहद-ओ-तक़्वा क्या इबादत है मआल-ए-बंदगी है ज़िंदगी अपनी मिटा देना तिरी नज़रों के सदक़े बे-पिए ही मस्त हैं साक़ी हमारे सामने से साग़र-ओ-मीना हटा देना रियाज़-ए-ज़ख़्म को दी ताज़गी मेरी निगाहों ने मिरे अश्कों को आता है ख़िज़ाँ में गुल खिला देना ग़ज़ल को अब 'हयात'-अफ़रोज़ नज़्ज़ारों की हाजत है क़दामत से अलग हट कर नई दुनिया बसा देना