हयात मुझ पे इक इल्ज़ाम ही सही फिर भी बहुत अज़ीज़ है मुझ को ये ज़िंदगी फिर भी नहीं कुछ और तो मुमकिन थी ख़ुद-कुशी फिर भी है कोई बात कि जीता है आदमी फिर भी ये तीरगी तो बस इक गर्दिश-ए-ज़मीं तक है मगर ये रात जो हम से न कट सकी फिर भी चमन लुटा है ख़ुद अहल-ए-चमन की साज़िश से कली कली है मगर महव-ए-ख़्वाब सी फिर भी किसी को पा के भी अक्सर गुमाँ ये होता है कि जैसे रह गई बाक़ी कोई कमी फिर भी हमीं पे यूरिश-ए-ज़ुल्मत हमीं हैं कुश्ता-ए-शब हमीं हैं पेश-रव-ए-सुब्ह-ओ-रौशनी फिर भी लब-ए-'कलीम' पे अब नग़्मा-ए-बहार तो है ये और बात कि आँखें हैं शबनमी फिर भी