हज़ारों ग़म हैं लेकिन बार-ए-ग़म दिल पर न रक्खूँगा ये नाज़ुक आबगीना उस पे मैं पत्थर न रक्खूँगा वो मौसम वो फ़ज़ा वो साअ'तें तेरे बिछड़ने की मैं अपने ज़ेहन में माज़ी के पस-मंज़र न रक्खूँगा कोई मस्कन न होगा अब मिरी बे-ख़्वाब रातों का मैं अपने दुश्मनों के बीच अपना घर न रक्खूँगा चलूँगा साथ अपने कारवान-ए-सरख़ुशी ले कर जिलौ में अब ग़म-ए-अंदोह का लश्कर न रक्खूँगा मिरा क्या है मुझे काँटों पे सो लेने की आदत है मसाफ़-ए-ज़िंदगी में बालिश-ओ-बिस्तर न रक्खूँगा बहुत मोहतात रहने पर भी अक्सर भीग जाता है मैं कोशिश लाख करता हूँ कि दामन तर न रक्खूँगा बजा है ऐ 'हज़ीं' मुजरिम हूँ ना-कर्दा गुनाही का मगर इल्ज़ाम जीने का मैं अपने सर न रक्खूँगा