हिज्र में नाशाद दुनिया से दिल-ए-मुज़्तर गया आज अपने साथ का इक मरने वाला मर गया सुनने वाले ख़ूब रोए मेरे हाल-ए-ज़ार पर यूँ ही अपनी उम्र का पैमाना आख़िर भर गया बाज़ू-ए-क़ातिल थकाए सख़्त-जानी ने मिरी बारहा इस हाथ से उस हाथ में ख़ंजर गया हम वही गुलशन वही महफ़िल वही सामाँ वही एक साक़ी क्या गया लुत्फ़-ए-मय-ओ-साग़र गया हो गई ग़ैरों को भी नाकाम मरने की हवस मैं किसी पर जान दे कर काम अपना कर गया रूह-परवर है निगाह-ए-नाज़ क़ातिल का असर जिस को देखा जी उठा जिस को न देखा मर गया मैं कभी रोया तो वो बोले डुबोया नाम-ए-इश्क़ और अगर आँसू पी लिए तो दिल में दरिया भर गया ऐसी ही ग़फ़्लत रही गर मेरे हाल-ए-ज़ार पर एक दिन अहबाब सुन लेंगे 'नज़र' भी मर गया