इश्क़ में कब ये ज़रूरी है कि रोया जाए ये नहीं दाग़-ए-नदामत जिसे धोया जाए दोपहर हिज्र की तपती हुई सर पर है खड़ी वस्ल की रात को शिकवों में न खोया जाए उलझे अब पंजा-ए-वहशत न गरेबानों से आज उसे सीना-ए-आ'दा में गड़ोया जाए एक ही घूँट सही आज तो पी ले ज़ाहिद कुछ न कुछ ज़ोहद की ख़ुश्की को समोया जाए जितने भी दाग़ रऊनत के हैं धुल जाएँगे हौज़-ए-मय में तुझे शैख़ आज डुबोया जाए