हिंसा के पहले मुझे फिर रुला गया इक शख़्स फ़साना कह के फ़साना बना गया इक शख़्स दिखा के एक झलक अपनी चश्म-ए-मय-गूँ से मय-ए-नशात ये कैसी पिला गया इक शख़्स कहूँ तो कैसे कहूँ इक अजीब मंज़र था निगार-ख़ाना-ए-हस्ती सजा गया इक शख़्स ख़लिश सी उठती है रह रह के क़ल्ब-ए-मुज़्तर में था कैसा तीर-ए-नज़र जो चुभा गया इक शख़्स न जाने आ गया दाम-ए-फ़रेब में कैसे था सब्ज़ बाग़ जो मुझ को दिखा गया इक शख़्स थी जिस से शम-ए-शबिस्तान-ए-ज़िंदगी रौशन जिला के शम-ए-मोहब्बत बुझा गया इक शख़्स में उस को देख के होश-ओ-हवास खो बैठा जब आया होश में उठ कर चला गया इक शख़्स ख़ुमार जिस का अभी तक है सर में 'बर्क़ी' के शराब-ए-शौक़ का चसका लगा गया इक शख़्स