हिसार तंग ज़मीं तंग आसमान भी तंग हमारे सर पे हुआ घर का साएबान भी तंग खुली फ़ज़ा से तो बेहतर थी क़ैद ही की घुटन कि आज होने लगे मुझ पे जिस्म-ओ-जान भी तंग फ़ज़ा-ए-वक़्त की साज़िश भी कैसी साज़िश थी हमारे जिस्म के होते गए निशान भी तंग सहारे मौजों के कुछ काम आ सके न मिरे शिकस्ता थी मिरी कश्ती तो बादबान भी तंग घिरा हुआ हूँ मैं बौनों के दरमियाँ कब से कि मेरा चेहरा है मजरूह तो ज़बान भी तंग अंधेरे अब तो निगलने लगे हैं यूँ कि 'असर' नवेद-ए-सुब्ह से पहले हुई ज़बान भी तंग