हिसार-ए-ज़ात से बाहर न अपने घर में हैं हम इस ज़मीं की तरह मुस्तक़िल सफ़र में हैं भटक रहे हैं अँधेरे मुसाफ़िरों की तरह उजाले महव-ए-सुकूँ दामन-ए-सहर में हैं जिन्हें ख़बर ही नहीं शरह-ए-ज़िंदगी क्या है वो मुजरिमों की तरह क़ैद अपने घर में हैं तो ए'तिबार-ए-शब-ए-इंतिज़ार है जानाँ तिरे फ़िराक़ के मौसम मिरी नज़र में हैं जो बे-क़रार हैं उन को कहीं क़रार नहीं नसीब वाले सितारों की रहगुज़र में हैं 'ख़याल' आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार है शायद जो सुस्त-गाम थे वो लोग भी सफ़र में हैं