हिसार-ए-मक़्तल-ए-जाँ में लहू लहू मैं था रसन रसन मिरी वहशत गुलू गुलू मैं था जो रह गया निगह-ए-सोज़न-ए-मशिय्यत से क़बा-ए-ज़ीस्त का वो चाक-ए-बे-रफ़ू मैं था ज़माना हँसता रहा मेरी ख़ुद-कलामी पर तिरे ख़याल से मसरूफ़-ए-गु्फ़्तुगू मैं था था आइने में शिकस्त-ए-ग़ुरूर-ए-यकताई कि अपने अक्स के पर्दे में हू-ब-हू मैं था तू अपनी ज़ात के हर पेच-ओ-ख़म से पूछ के देख क़दम क़दम मिरी आहट थी कू-ब-कू मैं था हर एक वादी-ओ-कोहसार से गुज़रता हुआ जो आबशार बना था वो आबजू मैं था ख़ुतन ख़ुतन थी शलंग-ए-ग़ज़ाल मेरे लिए बदन बदन मिरा नश्शा सुबू सुबू मैं था तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला मैं तेरी ज़ात में पिन्हाँ था और तू मैं था मआल-ए-उम्र-ए-मोहब्बत है बस यही 'तिश्ना' मिरी तलाश था वो उस की जुस्तुजू मैं था