हो गई शाम चमकते हैं दिये पानी पर हाथ रख दे मिरी तपती हुई पेशानी पर गर्म आहों से झुलसती है किताब-ए-एहसास नाला आता है मिरी सोख़्ता-सामानी पर इक मुसाफ़िर पे सितम धूप के तौबा तौबा इक शजर वो भी उतर आया है मन-मानी पर अब कहाँ नर्गिसी आँखों में शरारत का शुऊ'र अब कहाँ जश्न-ए-तबस्सुम तिरी नादानी पर मुझ से मत माँग मिरी उम्र-ए-गुरेज़ाँ का हिसाब फूल हँसते हैं मिरे ज़ख़्म की उर्यानी पर आख़िरश उन के दियों को भी हवा रौंद गई नाज़ था जिन को हवाओं की निगहबानी पर संग को गौहर-ए-नायाब समझते रहना मा'ज़रत दीदा-ए-ना-ख़ूब की नादानी पर साफ़ अश्कों के छलकने से हुआ शीशा-ए-दिल जैसे चलती हो कोई मौज-ए-हवा पानी पर क्या हुए चश्म-ए-ज़ुलेख़ा वो सुहाने सपने मिस्र क्यों बार है अब यूसुफ़-ए-कन'आनी पर चश्म-ओ-अबरू लब-ओ-रुख़्सार जबीन-ओ-काकुल किस ने रक्खी है हर इक शय हद-ए-इम्कानी पर कुफ़्र तो आज भी है दौलत-ए-ईमाँ का रक़ीब क्या मुसलमान भी क़ाएम है मुसलमानी पर मेरे हिस्से में रही सिर्फ़ अदा-ए-ए'राज़ दर्द को दाद मिली मेरी ग़ज़ल-ख़्वानी पर झील पर कौन चला आया है 'बज़्मी' सर-ए-शाम अक्स-ए-महताब लरज़ता सा लगा पानी पर