हूँ जब से तिरे हल्क़ा-ए-फ़ैज़ान-ए-नज़र में दुनिया सिमट आई है मिरे दीदा-ए-तर में है क़ुल्ज़ुम-ए-इदराक की मौजों में तलातुम अब चैन मयस्सर है सफ़र में न हज़र में करता है कोई हुर्मत-ए-काबा की क़बा चाक इक साहिर-ए-अलमूत के जादू के असर में ऐ गुम्बद-ए-ख़ज़रा के मकीं वक़्त-ए-दुआ है का'बे के मुसल्ले हैं कलीसा के असर में ऐ मीर-ए-अरब शौकत-ओ-सतवत की ढली शाम हर लम्हा सफ़र बर्क़-ओ-शरर ख़ौफ़-ओ-ख़तर में गिर्दाब की मौजों से सदफ़ होते हैं सैराब कुछ ख़ैर के पहलू भी हुआ करते हैं शर में रख शीशा-ए-दिल गर्द-ए-कुदूरत से मुसफ़्फ़ा मिट्टी कहीं रखता है कोई काँच के घर में इस शम्अ' की दुनिया को ज़रूरत है बहुत आज जो शैख़ लिए बैठा है अल्लाह के घर में 'बज़्मी' तन-ए-ख़ाकी का तक़द्दुस नहीं मतलूब है अज़्मत-ए-गौहर की बिना आब-ए-गुहर में