हो गया मंज़िल-नशीं जो राह-रौ दीवाना था इंतिख़ाब-ए-राह में ही ग़म अभी फ़रज़ाना था ऐ निगाह-ए-बर्क़ यूँ तो और भी थे आशियाँ तेरा मंज़ूर-ए-नज़र क्या मेरा ही काशाना था मोरिद-ए-इल्ज़ाम क्यों ठहरे भला दस्त-ए-करम माँगने वाले तिरा लहजा ही गुस्ताख़ाना था क़ौम का ही ग़म था जो 'इक़बाल' ने शिकवा किया ग़ौर कीजे तो वो शिकवा शिकवा-ए-बे-जा न था दर्द ही से अज़्मत-ए-इंसाँ बढ़ी वर्ना 'सहर' एक मुश्त-ए-ख़ाक था जब दर्द से बेगाना था