हो कैसे न हम दोनों का अंदाज़-ए-बयाँ और है मेरी ज़बाँ और फ़रंगी की ज़बाँ और चाहो कि न आए जो मिरे लब पे फ़ुग़ाँ और मारो न वहीं चोट कि है दर्द-ए-जहाँ और या-रब बुत-ए-ख़ुश-फ़ाम से अपनी नहीं बनती दे जिल्द उसे और जो दे मुझ को न जाँ और तू सब का ख़ुदा है तो मुझे इतना बता दे ये कैसी ख़ुदाई है यहाँ और वहाँ और इन शो'लों से तो जल न सका मेरा नशेमन अब देखिए क्या करती है ये बर्क़-ए-तपाँ और इक घूँट पे मब्नी है तिरे रिंद की दुनिया इस जाम में बस इतनी सी ऐ पीर-ए-मुग़ाँ और शैदाई हूँ 'ग़ालिब' का मुझे कहते हैं 'बेताब' जुज़ इस के नहीं कोई मिरा नाम-ओ-निशाँ और