हो सके तो मुझे इक शाम इनायत करना बरपा इस दिल पे मिरी जान क़यामत करना फिर तिरी याद में रक़्साँ है मिरी वहशत-ए-दिल कितना मुश्किल है तिरी याद को रुख़्सत करना ऐसा टूटा है तग़ाफ़ुल पे किसी के ये दिल हम से रो रो के कहे अब न मोहब्बत करना प्यार के नाम पे बे-मोल ही बिक जाते हैं हम को आता नहीं जज़्बों की तिजारत करना है नवाज़ा तुझे राज़िक़ ने तो फिर ऐ इंसाँ जितनी मुमकिन हो तू दुनिया में सख़ावत करना जान ले कहती हूँ ललकार के मैं तुझ से अदू मैं ने सीखा है सदा सच की हिमायत करना हम ने थामा है जो इंसाफ़ का दामन यारो हम से हरगिज़ नहीं उम्मीद-ए-रिआ'यत करना