कुछ रोज़ चाहतों का अजब सिलसिला रहा वो धड़कनों में प्यार की सूरत बसा रहा इक शख़्स जिस को दिल से भुलाया था बार बार ये दिल कि फिर भी उस को सदा सोचता रहा जिस के जुनूँ में हम ने बिता दी तमाम उम्र ये क्या कि उम्र भर ही वो हम से ख़फ़ा रहा ये सच है मुझ से हाथ छुड़ा कर वो जा चुका जाता उसे मैं दूर तलक देखता रहा तुम उस की बे-रुख़ी पे परेशाँ हो किस लिए दिल तोड़ना तो उस का सदा मश्ग़ला रहा चाहत में अपना ज़ौक़-ए-सफ़र भी अजीब था उस से ही शौक़-ए-हुस्न-ए-'मसर्रत' सजा रहा