हो वो अमीर-ए-शहर कि भूका फ़क़ीर हो ख़ुश-बख़्त उसे कहेंगे जो रौशन ज़मीर हो दौलत से कब ख़रीद सकेगा उसे कोई ग़ुर्बत में भी जो अपनी अना का असीर हो क्यों कर वो कर सकेगा भला अपना सर बुलंद हर ख़ास-ओ-आम की जो नज़र में हक़ीर हो ऐसा कहाँ ज़माने में पैदा हुआ कोई अपनी नज़ीर आप हो जो बे-नज़ीर हो खाता है ग़ुस्सा अक़्ल-ए-बशर को मगर ये राज़ समझेगा कब लकीर का जो भी फ़क़ीर हो लगते हैं ख़ार-दार दरख़्तों पे फल मगर लगता है फल भी वैसा कि जैसा ख़मीर हो कम-ज़र्फ़ के पड़ोस का पूछो न हाल-ए-ज़ार मुँह-ज़ोर है ग़रीब हो चाहे अमीर हो लेते हैं काम होश से चलता है वक़्त पर दीदा-वरों के हाथ में ख़ंजर कि तीर हो अर्श-ए-अदब के चाँद सितारों में है शुमार 'नय्यर' 'फ़िराक़' 'ज़ौक़' कि 'ग़ालिब' हो 'मीर' हो