हों क्यूँ न मुन्कशिफ़ असरार पस्त-ओ-बाला के जमे हैं पाँव ज़मीं पर सर आसमाँ को छुए जो सरनविश्त में है उस को हो के रहना है तो किस भरोसे पे इंसान जिद्द-ओ-जहद करे अब आसमाँ से सहीफ़े नहीं उतरते मगर खुला हुआ है दर-ए-इज्तिहाद सब के लिए ज़बाँ अता करे शे'र उन की बे-ज़बानी को जो अपने कर्ब का इज़हार कर नहीं सकते बहार-ओ-बहजत-ओ-इज़्ज़-ओ-वक़ार उस पे निसार ज़बाँ से माल से जाँ से जो ज़ालिमों से लड़े है आँसुओं में शिफ़ा कैसी क्या ख़बर उस को बहाए मक्र से जो झूट-मूट के टस्वे है बस-कि काम हम ऐसों का भी मसीहाई हम आसमान पे ज़िंदा उठाए जाएँगे