कुछ ऐसा था गुमरही का साया अपना ही पता न हम ने पाया दिल किस के जमाल में हुआ गुम अक्सर ये ख़याल ही न आया हम तो तिरे ज़िक्र का हुए जुज़्व तू ने हमें किस तरह भुलाया ऐ दोस्त तिरी नज़र से मेरा ऐवान-ए-निगाह जग मुस्काया ख़ुर्शेद उसी को हम ने जाना जो ज़र्रा ज़मीं पे मुस्कुराया मक़्सूद थी ताज़गी चमन की हम ने रग-ए-जाँ से ख़ूँ बहाया उफ़्ताद है सब की अपनी अपनी किस ने है किसी का ग़म बटाया महरूमी-ए-जाविदाँ है और मैं मैं ज़ौक़-ए-तलब से बाज़ आया हर ग़म पे है मेरे नाम की महर 'फ़ितरत' कोई ग़म नहीं पराया