होने का अपने वहम सा होता रहा मुझे या'नी सराब-ए-ज़ात डुबोता रहा मुझे इक दुख कि जिस ने संग को दिल सा बना दिया इक अश्क सारी रात भिगोता रहा मुझे अच्छे दिनों के ख़्वाब की ता'बीर के लिए मैं उस को जागता हूँ जो सोता रहा मुझे तेरे ही दुख की छेड़ी गई रागनी हूँ मैं तेरा ही राग धुन में पिरोता रहा मुझे अव्वल बदन का बोझ है सानी है दिल का बार दुख है वो एक पाँव जो ढोता रहा मुझे हरगिज़ मैं कम पड़ूँ न ज़ियादा उसे लगूँ इक शख़्स इस हिसाब से खोता रहा मुझे मेरे दुखों में मिल गए दुनिया के सारे दुख दुख ख़ुद में एक उम्र समोता रहा मुझे जिस ने कुँवर शिवेन का दीबाचा पढ़ लिया बाक़ी बची किताब में रोता रहा मुझे