होने को तो ख़िल्क़त में तिरी होंगे जहाँ और पर तेरा ये दर छोड़ के जाऊँ मैं कहाँ और ये दैर से बद-ज़न वो गुरेज़ाँ है हरम से जैसे कि हक़ीक़त हो यहाँ और वहाँ और रह जाए न फिर शिकवा-ए-बेदाद का इम्काँ सीना जो हुआ चाक तो कट जाए ज़ियाँ और हम कौन हैं क्या हैं ये नहीं जानते ख़ुद भी हम सा भी कोई होगा भला हेच-मदाँ और तक़लीद तबीअ'त को गवारा नहीं ऐ 'नूर' चलता हूँ बनाता हुआ ख़ुद अपने निशाँ और