होने से मिरे फ़र्क़ ही पड़ता था भला क्या मैं आज न जागा तो सवेरा न हुआ क्या सब भीगी रुतें नींद के उस पार हैं शायद लगती है ज़रा आँख तो आती है हवा क्या हम खोज में जिस की हैं परेशान अज़ल से बीमार की आँखों ने वो दर ढूँड लिया क्या मक़्तूल को बाँहों में लिए बैठा रहूँ क्यूँ इस जुर्म से लेना है उसे और मज़ा किया दीवार क़फ़स की हो कि घर की मुझे क्या फ़र्क़ तफ़रीह के सामाँ हों मयस्सर तो सज़ा क्या ऐसा तो कभी रक़्स में बे-ख़ुद न हवा मैं मय-ख़ाने के माहौल में होता है नशा क्या ये धूप की तेज़ी ये सराबों की सजावट सहरा ने जुनूँ को मिरे पहचान लिया क्या