होंट मसरूफ़-ए-दुआ आँख सवाली क्यूँ है दिल के मानिंद मिरा ज़ेहन भी ख़ाली क्यूँ है वो तो नाराज़ है मुझ से तो फिर आख़िर उस ने मुस्कुराहट सी मिरी सम्त उछाली क्यूँ है उस को हैरत मिरे शेरों पे नहीं इस पर है मेरे शाने पे जो चादर है वो काली क्यूँ है वो भी क्या दिन थे तिरी सोच को छू सकता था अब तिरा अक्स फ़क़त अक्स-ए-ख़याली क्यूँ है क्या बताओगे कि हम में से वफ़ा किस ने की तुम ने महफ़िल में मिरी बात निकाली क्यूँ है इस इरादे से में बैठा था ग़ज़ल लिखने को सोचता हूँ तिरी तस्वीर बना ली क्यूँ है अब मैं जाने नहीं देता तो बुरा मानती हो इस क़दर प्यार की आदत मुझे डाली क्यूँ है