होंटों पे सुख़न आँखों में नम भी नहीं अब के इस तरह वो बिछड़ा है कि ग़म भी नहीं अब के ख़ुद को दिल-ए-सरकश ने भी रक्खा न कहीं का जीने पे रज़ा-मंद तो हम भी नहीं अब के तन्हा हैं तो दरपेश हैं ख़तरात-ए-सफ़र और यूँ बे-सर-ओ-सामाँ यहाँ कम भी नहीं अब के क्या कहिए कि जो मुँह में ज़बाँ भी नहीं अपनी अफ़्सोस कि हाथों में क़लम भी नहीं अब के बे-रहम जुदाई का सबब भी नहीं मालूम इक-गूना तअल्लुक़ का भरम भी नहीं अब के क्या जाने 'मुजीबी' दिल-ए-क़ातिल में है क्या आज महज़र में कोई जुर्म रक़म भी नहीं अब के