तिरे वादे का हर इक को अगर ए'तिबार होता तो जहाँ में कुछ न होता फ़क़त इंतिज़ार होता अभी कम है सोज़-ए-उल्फ़त कि नफ़स शरर-फ़िशाँ है अगर आग तेज़ होती तो ये शो'ला-बार होता दिल-ओ-तीर-ए-ख़ूँ-चुका की वो शबीह खींच देता जो लहू का कोई क़तरा सर-ए-नोक-ए-ख़ार होता मुझे दर्द भी था राहत मुझे ग़म भी था मसर्रत जो वो मुझ को रंज दे कर कभी ग़म-गुसार होता जो भरा है ग़म से सीना तो सुकूत ही है बेहतर कि लबों पर आह आती तो इक इश्तिहार होता कभी यूँ मिटा न सकता उसे आसमान-ए-ज़ालिम तिरे दर पे ओ सितमगर जो मिरा मज़ार होता ये हिजाब-ए-जिस्म-ए-ख़ाकी कि है दीद का मुनाफ़ी कभी दरमियाँ से उठता तो विसाल-ए-यार होता न हुआ असर किसी पर मिरे नाला-ए-हज़ीं का तिरा तीर था न ज़ालिम कि जिगर के पार होता अभी और तूल देते ग़म-ए-इश्क़ को 'नज़र' हम अगर अपनी ज़िंदगी का हमें ए'तिबार होता