हुआ है ज़ेर-ए-ज़मीं आसमाँ अजीब सा कुछ मैं जिस में रहता हूँ वो है मकाँ अजीब सा कुछ फ़लक से आता है रुक़आ हमारे होने का है अपने माथे पे रौशन निशाँ अजीब सा कुछ कहाँ का वस्ल भला और कहाँ की हसरत-ए-वस्ल हर एक लम्हा हुआ बे-अमाँ अजीब सा कुछ अना की जिस से थी उम्मीद वो है नंग-ए-अना जिसे था होना वही है यहाँ अजीब सा कुछ कहाँ मैं होता हूँ आमादा कहने सुनने पर लहू से मेरी रगों में रवाँ अजीब सा कुछ मैं जब्र अपनी तबीअ'त पे जब भी करता हूँ दिखाई देता है मुझ को जहाँ अजीब सा कुछ है तेरे शेरों में कुछ ऐसी ख़ुश-गुमानी 'तूर' बयान-ए-हुस्न है हुस्न-ए-बयाँ अजीब सा कुछ