हुआ है क़त्अ मिरा दस्त-ए-मोजज़ा तुझ पे गियाह-ए-ज़र्द बहुत है ये सानेहा तुझ पे मैं चाहता हूँ मुझे मशअलों के साथ जला कुशादा-तर है अगर ख़ेमा-ए-हवा तुझ पे मैं अपने कुश्ता चराग़ों का पुल बना देता किसी भी शाम मिरी नहर-ए-पेश-पा तुझ पे ये कोई कम है कि ऐ रेग-ए-शीशा-ए-साअत उगा रहा हूँ मैं इक नख़्ल-ए-आईना तुझ पे कि अजनबी हूँ बहुत साया-ए-शजर के लिए सो रेग-ए-ज़र्द में होता हूँ रू-नुमा तुझ पे पुकारती है मुझे ख़ाक-ए-ख़िश्त-ए-पैवस्ता ये नस्ब होने का है ख़त्म सिलसिला तुझ पे