हुआ पीरी में इश्क़ उस नौजवाँ का इलाही मुझ में ज़ोर आया कहाँ का पड़ा साया जो उस सर्व-ए-रवाँ का मिला रुत्बा ज़मीं को आसमाँ का इरादा जब हुआ मुझ को फ़ुग़ाँ का धुआँ बन कर उड़ा रंग आसमाँ का समझते हैं गदा क़ंद-ए-मुकर्रर कलाम उस ख़ुसरौ-ए-शीरीं-दहाँ का दिल अपना बच नहीं सकता नज़र से निशाना है वो तीर-ए-बे-कमाँ का बहुत ढूँढी कमर आख़िर न पाई पता मिलता कहीं है बे-निशाँ का पड़ी मजनूँ के पाँव में जो ज़ंजीर उठाना ही पड़ा बार-ए-गराँ का मिटा हूँ ऐ हुमा उन की तलब में तजस्सुस छोड़ मेरे उस्तुख़्वाँ का सफ़र है आख़िरत का पेश 'आजिज़' तुझे सामान लाज़िम है वहाँ का