हुआ सरकश अंधेरा सख़्त-जाँ है चराग़ों को मगर क्या क्या गुमाँ है यक़ीं तो जोड़ देता है दिलों को कोई शय और अपने दरमियाँ है अभी से क्यूँ लहू रोने लगी आँख पस-ए-मंज़र भी कोई इम्तिहाँ है वही बे-फ़ैज़ रातों का तसलसुल वही मैं और वही ख़्वाब-ए-गिराँ है मिरे अंदर है अन-प्यासा किनारा मिरे अतराफ़ इक दरिया रवाँ है