किया है दिल ने बेगाना जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही से हमें जागीर-ए-आज़ादी मिली दरबार-ए-शाही से खिला है ग़ुंचा-ए-हैरत हवा-ए-गाह-गाही से हुए मज्ज़ूब रफ़्ता रफ़्ता उस की कम-निगाही से तिरी दुनिया में ऐ दिल हम भी इक गोशे में रहते हैं हमें भी कुछ उम्मीदें हैं तिरी आलम-पनाही से रेआया में शहंशाह-ए-जुनूँ की हम भी दाख़िल हैं हमें भी कुछ न कुछ निस्बत तो है ज़िल्ल-ए-इलाही से हुए हैं बस-कि बैअत उस नज़र के ख़ानवादे में फ़क़ीरी से तअल्लुक़ है न मतलब बादशाही से किया है उस नज़र ने सरफ़राज़ अहल-ए-मोहब्बत को किसी को ताज-दारी से किसी को बे-कुलाही से कहाँ वो ख़ानुमाँ-बर्बादी-ए-इश्क़ और कहाँ ये हम फिरा करते हैं यूँही दर-ब-दर वाही तबाही से