हुदूद-ए-ज़ात में औरों का ज़िक्र ही क्या है ख़ुद आदमी भी न समझा कि आदमी क्या है ये फ़ासले जो तिरे क़ुर्ब की ज़मानत हैं सिमट गए तो बताऊँगा ज़िंदगी क्या है हमी को ख़ाक समझ लो तुम्हारी उम्र-ए-दराज़ ये तज़्किरा तो मुकम्मल हो आदमी क्या है हिजाब-ए-ज़ात से बाहर कहाँ अभी हम लोग अभी ये कौन बताए कि आदमी क्या है कहा न था कि मोहब्बत का तज़्किरा न करो किसे ख़बर थी कि मेराज-ए-ज़िंदगी क्या है सवाल ये है कि तुम क्या निगाह रखते हो नियाज़-मंद तो वाक़िफ़ है बंदगी क्या है रवा नहीं है मुसलसल गुरेज़-ए-नक़्द-ओ-नज़र कभी कभी तो बताओ कि ज़िंदगी क्या है अभी तो मुझ से ख़ुदाई की हद में बात करो ख़ुदा बनो तो बताना कि आदमी क्या है जबीन-ए-शौक़ पे सज्दों के दाग़ ऐ 'अंजुम' ये बंदगी है तो मेआ'र-ए-बंदगी क्या है