हुए आज बूढ़े जवानी में क्या थे जब उट्ठे थे ज़ानू से हाथ आश्ना थे जहाँ की तो हर चीज़ में इक मज़ा था न समझे कि किस शय के हम मुब्तला थे न काफ़िर से ख़िलअत न ज़ाहिद से उल्फ़त हम इक बज़्म में थे प सब से जुदा थे न था मेरे जंगल में आज़ाद कोई बगूले भी पाबंद-ए-ज़ुल्फ़-ए-हवा थे मज़ार-ए-ग़रीबाँ तअस्सुफ़ की जा है वो सोते हैं फिरते जो कल जा-ब-जा थे बना कर बिगाड़ा हमें क्यूँ जहाँ में ये सब हर्फ़ क्या सहव-ए-किल्क-ए-क़ज़ा थे किए आख़िरी नाले दो-चार मैं ने वही नाले बांग-ए-शिकस्त-ए-दरा थे ख़ुदा जाने दुनिया में किस को थी राहत 'हवस' हम तो जीने से अपने ख़फ़ा थे