हुई ग़ज़ल ही न कुछ बात बन सकी हम से ये सरगुज़िश्त-ए-जुनूँ कब बयाँ हुई हम से सड़क पे बैठ गए देखते हुए दुनिया और ऐसे तर्क हुई एक ख़ुद-कुशी हम से हम आ गए थे घने बरगदों के साए में सौ बात करने चली आई रौशनी हम से वो ख़्वाब क्या था कि जो भूलने लगा दम-ए-सुब्ह वो रात कैसी थी जो रूठने लगी हम से बुझा के अपने अलाव पड़ा हमें छुपना तो यूँ कहानी फ़रामोश हो गई हम से हम आज फिर बड़ी ताब-ओ-तवाँ से जुलते हैं फिर आज सहम तो जाएगी तीरगी हम से हम आज भी उसी दरवाज़े की बने थे दर्ज़ वो बे-नियाज़ उसी तरह फिर मिली हम से