हुई सर-गश्ता ख़ाक अपनी ग़ुबार-ए-कारवाँ हो कर मुझे क़िस्मत सताती है रक़ीब-ए-कामराँ हो कर दिल-ए-पज़-मुर्दा आशिक़ को तुम अपने सामने रखना तमाशा रक़्स-ए-बिस्मिल का दिखाएगा तपाँ हो कर हमारे इस दिल-ए-वीराँ-शुदा में ऐ बुत-ए-रा'ना तुम्हारी आरज़ू घबरा रही है मेहमाँ हो कर उड़ाया तेज़ी-ए-बाद-ए-सबा ने गर तो ग़म क्या है ग़ुबार अपना बुलंदी पर रहेगा आसमाँ हो कर मिरे दिल की इमारत गो शिकस्ता हाल है लेकिन मकान-ए-ख़ास हो जाएगा उस का ला-मकाँ हो कर अनीस-ओ-मोनिस-ओ-हमदम उमीदें हो नहीं सकतीं कहाँ जाता है ऐ दिल यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ हो कर करें क्या गुफ़्तुगू आँखें मिला कर उन रक़ीबों से तुम्हारी बज़्म में बुत बन गए हैं बे-ज़बाँ हो कर हमारे दीदा-ए-हैरत-ज़दा में ख़्वाब क्या आए कि तेरी आरज़ू बैठी है इस में पासबाँ हो कर लगाना वार हल्का क़त्ल-गह में मुझ पे ऐ क़ातिल कि लुत्फ़ रक़्स-ए-बिस्मिल मैं दिखाऊँ नीम-जाँ हो कर मिरी काहीदगी और ना-तवानी पूछते क्या हो ग़म-ए-हिज्राँ दबाता है मुझे बार-ए-गराँ हो कर ख़ुदा के फ़ज़्ल से इस बोसतान-ए-ना'त-ए-मिदहत में 'जमीला' नग़्मा-ज़न है बुलबुल-ए-ख़ुश-दास्ताँ हो कर