तिश्नगी अपनी बुझाने के लिए जब गए हैं दश्त बेचारे समुंदर के तले दब गए हैं कूच करने की घड़ी है मगर ऐ हम-सफ़रो हम उधर जा नहीं सकते जिधर सब गए हैं ग़ैर शाइस्ता-ए-आदाब-ए-मोहब्बत न सही हम तिरे हिज्र के आज़ार में मर कब गए हैं अब कोई अक्स है सालिम न किसी का चेहरा आईना-ख़ाने में क्या देखने साहब गए हैं कोई रस्ता न मिला घर से निकल कर हम को हम उसी कू-ए-मलामत को गए जब गए हैं तेरी औक़ात ही क्या 'मिदहत-उल-अख़्तर' सुन ले शहर के शहर ज़मीनों के तले दब गए हैं