हुए थे कैसी हक़ीक़त से बद-गुमाँ हम लोग जो हर-सू देख रहे हैं धुआँ धुआँ हम लोग हमीं से अस्ल-ए-बिना-ए-हयात थी अब तक मगर हैं चश्म-ए-ख़ुदाई में राएगाँ हम लोग तमाम होश-ओ-ख़िरद इक गुमान-ए-ला-हासिल कि सोच सकते थे वर्ना कहाँ कहाँ हम लोग हमें था ज़ो'म के गोया-ए-‘अस्र हैं लेकिन कई दिनों से तो जैसे हैं बे-ज़बाँ हम लोग वो सरफ़रोशी के जज़्बे भी राख हो गए हैं हथेलियों पे लिए घूमते थे जाँ हम लोग मगर ये वक़्त भी 'अंजुम' गुज़र ही जाएगा पलट के आएँगे इक रोज़ कामराँ हम लोग