अहल-ए-दानिश की निगाहों में हदफ़ कोई नहीं सर तो अब भी है मगर संग-ब-कफ़ कोई नहीं हल्क़ा-ए-कम-नज़राँ ‘आक़िबत-अंदेश न था मैं उसी राह गया जिस की तरफ़ कोई नहीं दा'वा-ए-नाम-ओ-नसब सब की ज़बाँ से जारी वाक़ि'आ ये है कि पाबंद-ए-सलफ़ कोई नहीं ख़ुद-निगह-दारी की पादाश में रुस्वा हुए हम हासिल इस काम में तो इज़्ज़-ओ-शरफ़ कोई नहीं पी भी लेता हूँ जो माइल-ब-करम हो वो निगाह वर्ना इस ख़ाक के पुतले को शग़फ़ कोई नहीं 'अंजुम' अब अहल-ए-ज़माना से तवक़्क़ो' कैसी अब्र-ए-नैसाँ के मुक़द्दर में सदफ़ कोई नहीं