हुई जो रात पहलू में ख़ुशी से मर गए हम तो अगर तेरे ही आँगन में सहर होती तो क्या होता गुज़र तो यूँ भी जाएगी कड़कती धूप में तन्हा तिरे दामन के साए में बसर होती तो क्या होता हज़ारों रास्ते वा थे मगर तुझ तक जो पहुँचाती कहीं वो एक छोटी सी डगर होती तो क्या होता तिरी इस सर्द-मेहरी में कसक सी भी नुमायाँ है ख़ुदाया ये नवाज़िश भी न गर होती तो क्या होता तिरी सब दास्तानों में मिरे क़िस्से लिखे होते दुआ वो एक मेरी बा-असर होती तो क्या होता बहुत ही पुर-सुकूँ निकले तिरे आग़ोश से फिर हम कि ये आसूदगी आठों पहर होती तो क्या होता