हुई तज़लील-ए-हुनर बा-हुनरों के होते नग़्मा बे-रब्त हुआ नग़मा-गरों के होते किसी आसेब का साया है यक़ीनन वर्ना दर-ब-दर फिरते न हम अपने घरों के होते ये ग़नीमत है कि कुछ अहल-ए-नज़र बाक़ी हैं हम हदफ़ वर्ना यहाँ कम-नज़रों के होते इश्क़ पर कैसा कड़ा वक़्त पड़ा है यारो शहर वीरान है आशुफ़्ता-सरों के होते गिरते पड़ते सभी मंज़िल पे पहुँच तो जाते काश धोके में न हम राहबरों के होते कोई ईसा नज़र आ जाए तो उस से पूछूँ लोग मर जाते हैं क्यों चारागरों के होते हम ही से हो न सकी मदह-सराई उन की वर्ना मंज़ूर-ए-नज़र ताजवरों के होते जाने किस ख़ौफ़ से सिमटे हुए बैठे हैं तुयूर उड़ नहीं पाते नशेमन से परों के होते एक गर्दिश ही में अब तक तो बिखर भी जाते हम अगर दस्त-ए-निगर कूज़ा-गरों के होते सोचता हूँ न हो मंज़िल का तिलिस्म-ए-नैरंग राह क्यों मिलती नहीं राहबरों के होते जाने क्या हो गया क़िस्मत को हमारी या-रब कुछ नज़र आता नहीं दीदा-वरों के होते हम से औराक़-ए-तवारीख़ ये करते हैं सवाल कैसे बे-नाम हुए नाम-वरों के होते लुत्फ़ तो जब था कि रूदाद-ए-सफ़र में 'वासिल' तज़्किरे थोड़े बहुत हम-सफ़रों के होते