हुज़ूर-ए-यार भी आज़ुर्दगी नहीं जाती कि हम से इतनी भी दूरी सही नहीं जाती ख़ुद अपने सर ये बला कौन मोल लेता है मोहब्बत आप से होती है की नहीं जाती लहू जलाती है ख़ामोशियों में पलती है हिकायत-ए-दिल-ए-सोज़ाँ कही नहीं जाती हम इस को क्या करें तुम को है ना-पसंद मगर ज़बान-ए-हाल से बरजस्तगी नहीं जाती मिला दे ख़ाक में हम को हज़ार गर्दिश-ए-चर्ख़ मगर बगूलों से आवारगी नहीं जाती चमन वो हो कि बयाबाँ बहार हो कि ख़िज़ाँ जुनूँ की फ़ितरत-ए-जामावरी नहीं जाती अगर ग़ुबार हो दिल में अगर हो तंग-नज़र तो मेहर ओ माह से भी तीरगी नहीं जाती महकती रहती है ग़ुर्बत में भी शराफ़त-ए-नफ़्स गुल-ए-फ़सुर्दा से ख़ुशबू कभी नहीं जाती चराग़ दिन में धुआँ ही धुआँ सा लगता है शराब रात की शय दिन को पी नहीं जाती अगर यक़ीन नहीं है नजाबत-ए-मय पर तो लाख पीते रहो तिश्नगी नहीं जाती शुऊर-ए-हुस्न मुज़्मिर हिजाब में 'वामिक़' बरहना चेहरों से बे-चेहरगी नहीं जाती