हम अपने आप को अपने से कम भी करते रहते हैं और इस नुक़सान पर बेकार ग़म भी करते रहते हैं उठाते रहते हैं दिन-रात दीवार-ए-वजूद अपनी मगर दीवार को थोड़ा सा ख़म भी करते रहते हैं हम उस के हुस्न का जादू भी चढ़ने देते हैं ख़ुद पर और अपने आप पर कुछ पढ़ के दम भी करते रहते हैं हमें भी शहर की रौनक़ बला ले जाती है अक्सर मगर हम शहर की रौनक़ से रम भी करते रहते हैं हमें जब ख़ूब चढ़ जाता है नश्शा अपनी हस्ती का तो उस नश्शे में हम रक़्स-ए-अदम भी करते रहते हैं ये आईना हमारे रू-ब-रू जो कुछ भी करता है वही सब आइने के साथ हम भी करते रहते हैं कभी जब फ़रहत-एहसास अपना अफ़्साना सुनाते हैं उसे अपनी हक़ीक़त का अलम भी करते रहते हैं