जान मुक़द्दर में थी जान से प्यारा न था मेरे लिए सुब्ह थी सुब्ह का तारा न था बहर-ए-शब-ओ-रोज़ में बह गए तिनके से हम मौज-ए-बला-ख़ेज़ थी और किनारा न था जान के दुश्मन थे सब लोग तिरे शहर के उम्र कटी जिस जगह पल भी गुज़ारा न था सर्द रही उम्र भर अंजुमन-ए-आरज़ू ख़ार-ओ-ख़स-ए-शौक़ में कोई शरारा न था किस के लिए जागते किस की तरफ़ भागते इतने बड़े शहर में कोई हमारा न था शौक़-ए-सफ़र बे-सबब और सफ़र बे-तलब उस की तरफ़ चल दिए जिस ने पुकारा न था दूर सही मंज़िलें अब न रहीं हिम्मतें टूट गए पा-ए-शौक़ दिल अभी हारा न था