हम अपने ख़ून-ए-दिल से फ़साना बनाते हैं तन्क़ीद का वो फिर भी निशाना बनाते हैं आता है जब भी शहर में मौसम फ़साद का हम अहल-ए-ख़ैर दूर ठिकाना बनाते हैं होंटों पे तिश्नगी लिए हम दौड़ते रहे ये अहल-ए-मय-कदा तो बहाना बनाते हैं तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ की जल्वागरी न पूछ तस्बीह का हम आँसू को दाना बनाते हैं अहल-ए-ख़िरद तो वक़्त के धारे में बह गए अहल-ए-जुनूँ तो एक ज़माना बनाते हैं 'रहबर' सर-ए-नियाज़ झुकाने के वास्ते हम संग-ए-दर को अपना ठिकाना बनाते हैं