हम बयाबाँ से गुलिस्ताँ की तरफ़ आ न सके रग़बत-ए-ख़ार रही फूल हमें भा न सके आज तक राह-ए-हक़ीक़त में रहे मेरे क़दम मुझ को बदले हुए हालात भी बहका न सके यूँ तो कहने को नुमाइंदा हैं अस्लाफ़ के हम उन के क़दमों की मगर गर्द को भी पा न सके इन बहारों से ख़ुदा दूर हमेशा रक्खे जिन से अपने दिल-ए-बरगश्ता को बहला न सके दुख भरे दिन हों कि हों ग़म की भयानक रातें आज तक हम किसी माहौल में घबरा न सके कैसे इंसान से इंसान मिलेंगे दिल से अपने ज़ेहनों से जब औहाम के बुत ढा न सके ऐसे जीने से तो हासिल नहीं कुछ फ़ैज़ 'कमाल' रौशनी बन के अँधेरों पे अगर छा न सके