काँटे ही काँटे हैं ता-हद्द-ए-नज़र फिर भी ताज़ा है मिरा अज़्म-ए-सफ़र रहज़नों की रहनुमाई देख कर आज थर्राती है इक इक रहगुज़ार ढो रहे हो किस लिए पत्थर का बोझ हो गए मिस्मार सब शीशे के घर चलिए वीरानों में बसने के लिए शहर तो बर्बादियों के हैं खंडर आ गई सुब्ह-ए-तरब तो क्या हुआ सूना सूना है मिरे दिल का नगर जिन से होता है फ़रोग़-ए-आज़री आह वो किस काम के इल्म-ओ-हुनर कामरानी पाँव चूमेगी 'कमाल' देखिए ग़ैरों का दामन छोड़ कर