हम हैं मजरूह माजरा है ये वो नमक छिड़के है मज़ा है ये आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये बूद आदम नुमूद शबनम है एक दो दम में फिर हुआ है ये शुक्र उस की जफ़ा का हो न सका दिल से अपने हमें गिला है ये शोर से अपने हश्र है पर्दा यूँ नहीं जानता कि किया है ये बस हुआ नाज़ हो चुका अग़माज़ हर घड़ी हम से किया अदा है ये नाशें उठती हैं आज यारों की आन बैठो तो ख़ुशनुमा है ये देख बे-दम मुझे लगा कहने है तो मुर्दा सा पर बला है ये मैं तो चुप हूँ वो होंट चाटे है क्या कहूँ रीझने की जा है ये है रे बेगानगी कभू उन ने न कहा ये कि आश्ना है ये तेग़ पर हाथ दम-ब-दम कब तक इक लगा चक कि मुद्दआ' है ये 'मीर' को क्यूँ न मुग़्तनिम जाने अगले लोगों में इक रहा है ये