कब ख़ूँ में भरा दामन-ए-क़ातिल नहीं मालूम किस वक़्त ये दिल हो गया बिस्मिल नहीं मालूम उस क़ाफ़िले में जाते हैं महमिल तो हज़ारों पर जिस में कि लैला है वो महमिल नहीं मालूम दरपेश है जूँ अश्क सफ़र हम को तरी का दिन रात चले जाते हैं मंज़िल नहीं मालूम हैरान हैं हम उस के मुअम्मा-ए-दहन में क्यूँ-कर खुले ये उक़्दा-ए-मुश्किल नहीं मालूम ऐ 'मुसहफ़ी' जल-भुन के हुआ ख़ाक में सारा दिखलावेगी अब क्या तपिश-ए-दिल नहीं मालूम