हम हैं मुश्ताक़-लक़ा हम को वो टालें क्यों कर और टालें भी तो हम दिल को सँभालें क्यों कर ज़ुल्म करने को वो कहते हैं बराबर हम से फ़िक्र ये है कि इसे बज़्म से टालें क्यों कर हर घड़ी ज़ुल्म-ओ-सितम का उन्हें रहता है ख़याल अपने आशिक़ की तमन्ना वो निकालें क्यों कर शर्म आती है उन्हें कर के जफ़ा हज़रत-ए-दिल सामने आप के वो नाम-ए-वफ़ा लें क्यों कर नाला करते हैं जो आशिक़ तो वो होते हैं ख़फ़ा मुँह से अब हर्फ़-ए-तमन्ना ये निकालें क्यों कर रफ़्ता-रफ़्ता सितम-ए-चर्ख़ के आदी होंगे यक-ब-यक बार-ए-गराँ सर पे उठा लें क्यों कर दिल लिया था मिरा बचपन में उसी दिन के लिए फिर चलें आप जवाँ हो के न चालें क्यों कर उस के कूचे से निकलना तो है आसाँ अपना लेकिन अरमाँ दिल-ए-शैदा से निकालें क्यों कर नाज़ उठाने को तो 'हामिद' भी वहाँ जा बैठे अब सँभलता नहीं दिल उन से सँभालें क्यों कर